रतलाम एक ऐसा नाम जिसका इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है रतलाम का नाम सुनते ही हमारे मन में अनोके ख्याल आते हे रतलाम शब्द सुनते ही कोई यहां के राजा रतन सिंह को याद करेगा तो कोई रतलाम की देवी मां कालका को याद करेगा तो कोई यहां के प्रसिद्ध सेव, सोना , जंक्शन को याद करेगा तो कोई यहां के जंगल , पठार, नदियों और यहां की खूबसूरत प्रकृति को याद करेगा अपने अंदर हजारों खुबिया संजोय रखे इस रतलाम शहर का इतिहास भी अतुल्य महान रहा है यहां के वीर योद्धा ने समय समय पर रतलाम के लिए अपना रक्त बहाया है , देखा जाए तो रतलाम शहर की विरासत और अपना इतिहास काफी पुराना और वीरता से भरा पड़ा है रतलाम की कई खूबियों और योद्धा में से आज हम रतलाम के प्रथम शासक राजा रतन सिंह की बात करेंगे जो धरमत के युद्ध का मुख्य नायक रहा है इसी रतन सिंह के नाम से रतलाम को जाना गया मुगल कालीन भारत के मालवा का एक विशाल परगना जो समय समय पर कई सरदारों के अधिकार में रहा लेकिन इस रतलाम पर अपना पूर्ण अधिपत्य करने वाला योद्धा एक ही हुआ जिसे राजा रतन सिंह के नाम से जाना गया
Ratlam ke raja Ratan Singh
राजा रतन सिंह जैसा नाम वैसा काम में राजा रतन सिंह कहूं या एक कीमती सोना एक कीमती हीरा जो इतिहास में अनमोल रहा इतिहास में जिसकी तलवार की खनक हमेशा बरकरार रही और रतलाम के दुश्मनों के लिए एक गाज रही जिससे शायद ही कोई बच पाया हो राजा रतन सिंह इतिहास का वो महान योद्धा हे जिसके शरीर पर 26 तिर और 80 घाव लगे फिर भी लडता रहा मेरे शब्दो मे कहूं तो यह रतलाम का हीरा रत्न रतन सिंह ही था जिसमे यह वीरता भरी पड़ी थी,
राजा रतनसिंह के वंश की शुरुआत जोधपुर राजपरिवार से होती है सन 1459 में राव जोधा ने जोधपुर राज्य की स्थापना कर अपना मुकाम मंडोर से जोधपुर कायम किया राव जोधा की चौथी पीढ़ी में वीर योद्धा राव मालदेव जी हुए जिसने अपने तलवार की जोर पर इतिहास में खूब नाम कमाया इन्ही मालदेव के पुत्र मोटा राजा उदय सिंह हुए उदय सिंह के 17 पुत्र हुए जिसमे राव दलपत 5वे पुत्र थे राव दलपत के पुत्र राजा महेश दास हुए महेश दास को शाहजाह ने जालोर का परगना दिया था इन्ही राजा महेश दास की जेष्ठ संतान के रूप में राजा रतन सिंह का जन्म हुआ जिसे रतलाम के पहले राजा के रूप में जाना गया राजा रतन सिंह का जन्म 6 मार्च शनिवार सन1619 के साल मारवाड़ के बलाहेड़ा में हुआ राजा रतन सिंह की मां आमेर के नवल सिंह लूणकरण राजावत की पुत्री थे धन्य हे वो मां जिसने रतन सिंह जैसे हीरे को जन्म दिया
22 जनवरी 1641 के साल शाहजहा की वर्षगाठ उत्सव के समय हाथियों की लड़ाई के दौरान “कहरकोप” नाम का हाथी अपना आपा खो कर दरबार की सीढ़ियों की ओर बढ़ा पागल हाथी को देख सभी लोगो मे अफरातफरी मच गई लेकिन वहा खड़ा एक 22 वर्षीय नौजवान यह सब देखता रहा और अचानक अपनी कटार निकाल गुस्साये हाथी की तरफ भागा और हाथी ने अपनी सूंड से नौजवान योद्धा को गिरा दिया
लेकिन एक योद्धा की निशानी है वह कभी युद्ध मैदान में पीछे नही हटता चाहे अपने प्राणों की बलि क्यू ना देना पड़े युवा योद्धा खड़ा हुआ और हाथी की सूंड पकड़ उसके सर पर जा पहुंचा और अपनी कटार से उसके सिर पर वार करता रहा जिससे हाथी घबरा कर पीछे लोट गया और मौका देख वह हाथी से कूद गया यह नौजवान वीर योद्धा और कोई नही हमारे रतलाम का पहला शासक रतन सिंह था इस घटना के बाद रतन सिंह की ख्याति सर्वत्र फैल गई रतन सिंह को सम्मान पूर्वक चार सदी जात और दो सौ सवारों का मनसब मिला यानी रतन सिंह एक उच्च अधिकारी बने तथा अपने साथ दो सौ धुडसवार सैनिक साथ रखने का अधिकार प्राप्त किया इसी गुजरते समय के साथ सन 1656 में रतन सिंह को मालवा सूबे में अन्य परगने के साथ रतलाम का परगना भी मिल गया जो रतन सिंह को अपने वतन के रूप में वंश परंपरागत रूप से मिला जो रतन सिंह से सन 1656 से लेकर महाराज लोकेंद्र सिंह तक रहा और लोकेंद्र सिंह के समय 15 जून 1948 को रतलाम रियासत का विलय भारत संघ में हो गया
जब रतन सिंह को रतलाम का राज्य मिला उसके कुछ साल बाद मुगल घराने में उतराधिकारी को लेकर ग्रह कलह उत्पन हो गया शाहजहा की संताने दारा शिकोह , शाह शुजा , औरंगजेब व मुराद बक्श आपस में लड़ने लगे परिणाम स्वरूप युद्ध की स्थिति उत्पन हुई और युद्ध घरमट के युद्ध के रूप में हुआ मालवा में धरमट वो स्थान जहा हजारों योद्धा का खून बहा जो रतन सिंह के जीवन का आखरी युद्ध मैदान रहा
युद्ध के लिए रतन सिंह को जोधपुर के राजा जसवंत सिंह ने निमंत्रण भेजा रतन सिंह ने जसवंत सिंह का निमंत्रण स्वीकार कर 20 दिसंबर 1657 को अपने सभी साथियों के साथ आगरा पहुंचे वहा जसवंत सिंह से मिल रतन सिंह अपने वतन रतलाम लोट आए तथा अपने 19 वर्षीय पुत्र राम सिंह का राज तिलक कर उसे रतलाम का सारा प्रबंध सौप दिया और स्वयं युद्ध की तैयारी में जुट गए सन 1658 के प्रारंभ में महाराजा जसवंत सिंह का युद्ध का पत्र रतन सिंह को मिला पत्र पाकर रतन सिंह शुभ मुहूर्त में उज्जैन के लिए रवाना हुए इस युद्ध मे राजा रतन सिंह के साथ उनका छोटा पुत्र रायसिह , भाई फतेह सिंह , एवम रतन सिंह के प्रमुख सरदार अमरदास , भगवान दास, बारहट जसराज , खिड़िया जगा जी यह सभी रतन सिंह के साथ 5 अप्रेल को उज्जैन जा कर जसवंत सिंह की सेना में सम्मिलित हुए 15 अप्रेल 1658 को धरमट के रणक्षेत्र में शाही सेना और शहजादे की सेना आमने सामने आ डटी रतन सिंह ने अपने सभी साथियों को वीर रस से भरे वचनों से प्रोत्साहित किया उन्हें मरने मारने को कहा अगले दिन 16 अप्रैल 1658 को दोनो सैनाये धरमाट रण मैदान में युद्ध के लिए आतुर हो गई दोनो सेना के युद्ध के नगाड़े बजने लगे और भारत के सबसे बड़े युद्ध का प्रारंभ हुआ दोनो सेना आपस में भिड़ गई दोनो सेना के योद्धा का रक्त बहने लगा
क्या राठौड़ , क्या चौहान , क्या हाड़ा इस युद्ध में हर एक योद्धा का शोर्य अद्वितीय था मानो सभी योद्धा मोत के दीवाने हो चले थे
तलवारों बंदूकों तोपो की आवाजों से सारा रण क्षेत्र गूंज चुका था सारे योद्धा घायल शेर की तरह अपनी दुश्मन सेना पर टूट पड़े थे इसी बीच घायल जसवंत सिंह को युद्ध मैदान से बाहर निकाला गया और उसकी जगह रतलाम के रतन सिंह ने शाही सेनापति का सम्मान चिन्ह धारण कर अपने जीवन अंतिम युद्ध लडने के लिए अपने मुठ्ठी भर साथियों को लेकर एक घायल शेर की तरह शाहजादो की सेना पर टूट पड़ा धरमाट का युद्ध खत्म होने को था परिणाम शाहजदो के पक्ष में था लेकिन यह रतलाम का राजा सब कुछ जानते हुए भी लडता रहा ताकि जसवंत सिंह सही सलामत मारवाड़ जा सके रतन सिंह ने अपने प्राणों का मोह त्याग दिया था साक्षात रुद्र का रूप बन अप्रतिम शौर्य से शत्रु सेना का संहार कर रहा था रतन सिंह का शरीर घावों से जर्जर हो चुका था रतन सिंह के सभी योद्धा एक के बाद एक मर रहे थे और अंत मे रतन सिंह घावों से विक्षत होकर युद्ध मैदान में गिर पड़ा रतन सिंह के मैदान में गिरते ही युद्ध का परिणाम स्पष्ट हो चुका था शहजादे की सेना विजय ही चुकी थी लेकिन एक वीरता का सेहरा रतन सिंह के सर चढ़ा था अपने शरीर पर 26 तिर एवम 80 घाव लगने के बाद राजा रतन सिंह मूर्छित हो गया और वीर गति को गया इसी युद्ध के बाद औरंगजेब ने इस स्थान का नाम फतेहबाद रखा और यहां कस्बा बसाया
जिस स्थान पर राजा रतन सिंह वीरगति को गए उस स्थान पर उसका दाह संस्कार कर उसकी पवित्र अस्थियां का उज्जैन में मां शिप्रा की पावन धारा में प्रवाह किया और वहा एक चबूतरा बनाया
आज भी जब धरमात युद्ध की बता होती है राजा रतन सिंह का नाम सबसे पहले लिया जाता है रतन सिंह की यशोकथा सदा अमर रहेगी राजा रतन सिंह ने जो कीर्ति अर्जित की है वह देवो को भी दुर्लभ है कई योद्धा इस कीर्ति के लिए तरसते है वह यश बड़ी आसानी से रतलाम के प्रथम राजा रतन सिंह ने प्राप्त किया है
इसी यश कीर्ति की प्रशंसा के लिए कवि ने एक दोहा कहा
“पड़ियो जदे प्रिसणा रीणा पाड़े
तणा कई करी घणी तन
सिर कंठ बाधी कहे इम सकर
रूडमाल सुधीर रतन”
लेखक –
हर्षवर्धन सिंह गोंदीशंकर
7000450390
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Yoga is a spiritual and physical practice that originated in ancient India over 5,000 years ago. It is a holistic approach to well-being that emphasizes
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Very nice info